Saturday, May 17, 2008

कुछ कहा जाए ...

हर्फ़ की क्या बात करें, हर्फ़ तो बस खुद से वफ़ा करते हैं,
मायने तो बयाँ करते हैं, कहाँ अन्दाज-ए-बयाँ बयाँ करते हैं।

लिख तो दें हज़ारों परीशाँ अपने इस सफ़र-ए-रहगुजर पे,
लफ़्ज कहाँ, यह अफ़साना तो बस हमसफ़र ही बयाँ करते हैं।

तमाम वाक्ये लिख दें या कुछ को खाक हो जाने दें,
चंद रंग ही तो हैं जो असल तस्वीर बनाया करते हैं।

जो हुआ सो हुआ, किसि से शिकवा नहीं ’बरसी’,
खाना-बदोश तो यूँ ही बिन सुराग कूच कर जाया करते हैं।

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